बंद कमरा, खुली आंखों में जागते कई ख़्वाब
मैं, मेरी तन्हाई चार दिवारी और चंद किताब
घड़ी की टिक-टिक, काली सियाह अंधेरी रात
बढ़ती उम्र, मांगती नाकामयाबी का हिसाब
फिर पूछूं जो खुद से सवाल, किया क्या अब तक
गहरी सोच, खामोश लब, नहीं मिलता कोई जवाब
‘उम्मीद’ ही सोच के समंदर में डूबती कश्ती को सहारा देती
आवाज़ आती रख सब्र मिल जाएगा कामयाबी का खिताब
दूर होंगे कमबख्त ये मुफलिसी भरे हालात
और एक दिन हम भी बनेंगे साहिब-ए-निसाब.
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