दर्द देकर, दवा बताते हो

दिल-लगी कर के दिल कहीं और लगाते हो
रकीबों की बातों पर तुम जो यूँ मुस्कुराते हो

हम जागते हैं तन्हा रातों को
जुगनुओं तुम पुर-सुकून कैसे सो जाते हो

सुना है करते हो रौशन जहाँ ये सारा
फिर हमे ही क्यों अंधेरे में छोड़ जाते हो

खाई थी क़सम तुमने किए थे कसीर वादे
करके वा’दा-ए-दीद वादा तोड़ जाते हो

बचा है ख़ुदा का ख़ौफ़
या सज्दों में अब सिर ही नहीं झुकाते हो

तुम जो चेहरा असली छुपाते, बताना कभी
जुगनुओं ये हुनर कहाँ से लाते हो

पहले तो तुम कहते थे हम हैं तुमसे
अब अपना किसी और को बताते हो

ना थी मोहब्बत तो छूने की इज़ाजत लेते थे
अब मोहब्बत में होकर भी खौफ दिखाते हो

मुस्कुराने की वजह थे हम कभी तुम्हारी
खून के आँसू अब जो तुम रुलाते हो

तुम तो कहते थे, दर्द न दूंगा कभी
अब दर्द देकर लोगों को दवा बताते हो

हम जागते हैं तन्हा रातों को
जुगनुओं तुम पुर-सुकून कैसे सो जाते हो?

✍🏻मोहम्मद इरफ़ान

One thought on “दर्द देकर, दवा बताते हो

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