बंद कमरा, खुली आंखों में जागते कई ख़्वाब

बंद कमरा, खुली आंखों में जागते कई ख़्वाबमैं, मेरी तन्हाई चार दिवारी और चंद किताब घड़ी की टिक-टिक, काली सियाह अंधेरी रातबढ़ती उम्र, मांगती नाकामयाबी का हिसाब फिर पूछूं जो खुद से सवाल, किया क्या अब तकगहरी सोच, खामोश लब, नहीं मिलता कोई जवाब ‘उम्मीद’ ही सोच के समंदर में डूबती कश्ती को सहारा देतीआवाज़…

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दर्द देकर, दवा बताते हो

दिल-लगी कर के दिल कहीं और लगाते होरकीबों की बातों पर तुम जो यूँ मुस्कुराते हो हम जागते हैं तन्हा रातों कोजुगनुओं तुम पुर-सुकून कैसे सो जाते हो सुना है करते हो रौशन जहाँ ये साराफिर हमे ही क्यों अंधेरे में छोड़ जाते हो खाई थी क़सम तुमने किए थे कसीर वादेकरके वा’दा-ए-दीद वादा तोड़…

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क्या गम है, जो छुपाते हो ?

क्या गम है जो छुपाते हो, सहमे से रहते होअंदर ही अंदर में बोलकर किसे समझाते होगम में रहकर भी जीना, कोई जीना हैवजह तुम किसी से क्यों नहीं बताते हो? औरों को मस्जिद का रास्ता बता करखुद मयखाने की तरफ निकल जाते होजिंदगी के सबक तो सीख लिए हैं पहले हीअब आईना देखने से…

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