आओ नया मुल्क बनाएं…

हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई चारों मिलएक थाली में खाएंमुल्क की तरक्की का ज़िम्माअपने कंधों पर हम उठाएंआओ नया मुल्क बनाएं हरा सफेद केसरिया मिला एक तिरंगाअपने हाथों में उठाएंचारों मिल उसे बुलंदियों पर ले जाएंशीश शिखर पर अपना हम उठाएंआओ नया मुल्क बनाएं क्यों ना तहज़ीबों की एक मशाल बनाएंएकता की चिंगारी से नफरतों को…

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बंद कमरा, खुली आंखों में जागते कई ख़्वाब

बंद कमरा, खुली आंखों में जागते कई ख़्वाबमैं, मेरी तन्हाई चार दिवारी और चंद किताब घड़ी की टिक-टिक, काली सियाह अंधेरी रातबढ़ती उम्र, मांगती नाकामयाबी का हिसाब फिर पूछूं जो खुद से सवाल, किया क्या अब तकगहरी सोच, खामोश लब, नहीं मिलता कोई जवाब ‘उम्मीद’ ही सोच के समंदर में डूबती कश्ती को सहारा देतीआवाज़…

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हमारी हिंदी, पहचान हमारी

हिन्द से बने है हिंदी, हिंदी से हमहमसे बने है हिंदुस्तान आन, मान, मर्यादा सब का रखे ध्यानहिंदी से मिलती हमें एक अलग पहचान नफरत की तीखी गोली मेंये अमृत सी मीठी बोली लाए दीन-हीन को गले लगाना सिखाएभटके मुसाफिरों को सही रास्ता दिखाए जब-जब हवा में हिंदी की ख़ुशबू आएअंग्रेजी की अकड़ से जब…

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मन की आंखों से देखें सब दिखेगा…

ये मौसम ये वादियां ये कोह ये नज़ारेखुदा ने ज़मीं पर हम सब के लिए उतारेये लहरें ये जलतरंग ये बहर ये बहारेंखुदा ने ज़मीं पर हम सब के लिए उतारे ये दरिया ये भँवर ये कश्ती ये किनारेख़ुदा ने ज़मीं पर हम सब के लिए उतारेये चाँद ये सूरज ये रौशन ये सितारेख़ुदा ने…

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दर्द देकर, दवा बताते हो

दिल-लगी कर के दिल कहीं और लगाते होरकीबों की बातों पर तुम जो यूँ मुस्कुराते हो हम जागते हैं तन्हा रातों कोजुगनुओं तुम पुर-सुकून कैसे सो जाते हो सुना है करते हो रौशन जहाँ ये साराफिर हमे ही क्यों अंधेरे में छोड़ जाते हो खाई थी क़सम तुमने किए थे कसीर वादेकरके वा’दा-ए-दीद वादा तोड़…

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क्या गम है, जो छुपाते हो ?

क्या गम है जो छुपाते हो, सहमे से रहते होअंदर ही अंदर में बोलकर किसे समझाते होगम में रहकर भी जीना, कोई जीना हैवजह तुम किसी से क्यों नहीं बताते हो? औरों को मस्जिद का रास्ता बता करखुद मयखाने की तरफ निकल जाते होजिंदगी के सबक तो सीख लिए हैं पहले हीअब आईना देखने से…

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यूं ही नहीं ये पत्रकार कहलाते हैं

हर बात की तह तक जाते हैंझूठे नक़ाब बेबाकी से उठाते हैंउठाएं जो कलम तो गागर में सागर भर देंयूं ही नहीं ये पत्रकार कहलाते हैं परिस्थितियों से ये ना घबराते हैंजान की बाजी बेखौफ लगाते हैंक़िरदार वफ़ा का क्या खूब निभातेयूं ही ये पत्रकार कहलाते हैं मजलूमों की आवाज़ बन जाते हैंज़रूरत पर तख्त-ओ-ताज़…

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