वो बिन कसूर दर्द बेहिसाब सहती है
एक बार नहीं महीने मे सात-सात बार सहती है
उन दिनों वो सहमी सी रहती है
शर्म से बातें भी कहां किसी से किया करती है।
क्या मंदिर क्या मस्जिद क्या घाट किनारे
अब तो रसोई में जाने पर भी पाबंदी रहती है
कसूर ना होकर भी कसूरवार वो रहती है
ये एक नहीं हर औरत की आपबीती है।
नौ महीने औलाद को कोख में वो रखती है
सुबह शाम उनकी सालामती की दुआएं किया करती है
ख़ुद धूप में रह कर जिसे छांव में रखती है
बाद इन सब के भी ऊँगली औरत पर ही उठती है।
वो वीरांगना है जनाब
खुद ग़म के आँसू पीकर भी सब को खुश रखती है
वो बिन कसूर दर्द बेहिसाब सहती है
एक बार नहीं महीने में सात सात बार सहती है।
✍️ मोहम्मद इरफ़ान