हर बात की तह तक जाते हैं
झूठे नक़ाब बेबाकी से उठाते हैं
उठाएं जो कलम तो गागर में सागर भर दें
यूं ही नहीं ये पत्रकार कहलाते हैं
परिस्थितियों से ये ना घबराते हैं
जान की बाजी बेखौफ लगाते हैं
क़िरदार वफ़ा का क्या खूब निभाते
यूं ही ये पत्रकार कहलाते हैं
मजलूमों की आवाज़ बन जाते हैं
ज़रूरत पर तख्त-ओ-ताज़ बन जाते हैं
हक़ हकदार को दिलाते
यूं ही नहीं ये पत्रकार कहलाते हैं
हैं कुछ जो चंद पैसों में ईमान बेच खाते हैं
सच को झूठ झूठ को सच बताते हैं
ये कुछ ही बिरादरी पर बदनामी का दाग़ लगाते
यूं ही नहीं ये पत्रकार` कहलाते हैं
✍️ मोहम्मद इरफ़ान
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